उत्तरायणी बागेश्वर का सुप्रसिद्ध मेला
उत्तरायणी मेला 14 जनवरी को शुरू होता है. इस मेले में बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. श्रद्धालु सरयू और गोमती नदी के संगम पर डुबकी लगाते हैं. बागनाथ के मंदिर में भगवान शिव के दर्शन करते हैं और ब्राह्मणों और भिक्षुकों को दान-दक्षिणा देकर पुण्य अर्जित करते हैं|
मकर संक्रांति से सूर्य का उत्तरायण प्रारंभ हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार उत्तरायण को देवताओं का दिन और सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है, इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाओं का विशेष महत्व है।
इस मेले के संदर्भ में चंद्रवंशी राजा कल्याण सिंह को लेकर एक कथा भी प्रचलित है.|
घुघुती त्यौहार का मिथक चन्द्रवंशी राजा कल्याण सिंह के साथ जुड़ा है। कल्याण सिंह की कोई सन्तान नहीं थी। उन्हें बतलाया गया कि बागनाथ के दरबार में मनौती माँगने से उन्हें अवश्य सन्तान प्राप्त होगी। कुछ समय उपरांत उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हो गई और बालक का नाम निर्भय चंद रखा गया। प्रसन्नचित्त रानी ने बच्चे को हीरे-मोती की बहुमूल्य माला पहनाई, जिसे पहनकर बालक अत्यधिक प्रसन्न रहता था। एक बार बालक जिद पर आ गया तो रानी ने उसे डराने के लिये उसकी माला कौवे को दे देने की धमकी दे डाली। बच्चा अब एक और जिद करने लगा कि कौवों को बुलाओ। रानी ने बच्चे को मनाने के लिये कौवों को बुलाना शुरू कर दिया। बच्चा तरह-तरह के पकवान और मिठाइयाँ, खीर खाता था, उसका अवशेष कौवों को भी मिल जाता था। इसलिये शनैः-शनै बालक की कौवों से दोस्ती हो गई। पूर्व में राजा के निःसंतान होने के कारण घुघुती नामक राजा का मंत्री राजा के बाद राज्य का स्वामित्व पाने का स्वप्न देखा करता था। लेकिन निर्भय चंद के पैदा हो जाने के कारण उसकी इच्छा फलीभूत न हो सकी। परिणामस्वरूप वह निर्भय चंद की हत्या का षड़यंत्र रचने लगा और एक बार बालक को चुपचाप से घने जंगल ले गया। कौवों ने जब आँगन में बच्चे को नहीं देखा तो आकाश में उड़ कर इधर-उधर उसे ढूँढ़ने लगे। अकस्मात् उनकी नजर मंत्री पर पड़ी, जो बालक की हत्या की तैयारी कर रहा था। कौवों ने काँव-काँव का कोलाहल कर, बालक के गले की माला अपनी चोंच में उठा कर राजमहल के प्रांगण में डाल दी। बच्चे की टूटी माला देखकर सब आश्चर्यचकित हो गये। राजा ने मंत्री को बुलवाया, पर मंत्री कहीं था ही नहीं। राजा को षडयंत्र का आभास हो गया और उन्होंने कौवों के पीछे-पीछे सैनिक भेजे। वहाँ जाकर सैनिकों ने देखा कि हजारों कौवों ने मंत्री घुघुती को चोंच से मार-मार कर बुरी तरह घायल कर दिया था और बच्चा अन्य कौवों के साथ खेलने में मगन था। सैनिक बच्चे को लेकर दरबार में आ गये। इसी बीच सारे कौवे राजदरबार की मीनार पर बैठ गये। मंत्री को मौत की सजा सुनाई गयी और उसके शरीर के टुकड़े-टुकडे़ कर कौवों को खिला दिये गये। लेकिन इससे कौवों का पेट नहीं भरा। अतः निर्भय चंद की प्राण रक्षा के उपहारस्वरूप नाना प्रकार के पकवान बनाकर उन्हें खिलाये गये। इस घटना से प्रतिवर्ष घुघुती माला बनाकर कौवों को खिलाने की परम्परा शुरू हुई। यह संयोग ही था कि उस दिन मकर संक्रान्ति थी। इस त्यौहार के विषय में अनेक अन्य लोक मान्यताएँ भी हंै। एक लोक कथा के अनुसार किसी ‘घुघुत’ नामक राजा के समय से इस त्यौहार की शुरुआत हुई। कुमाऊँ की प्रख्यात कत्यूरी वीरांगना जियारानी के kaley-kawwa-mala किस्से व पौराणिक काकभुसुंडि के साथ भी इस पर्व को जोडा़ जाता है।
संक्रां ति पर्व को प्रातः सूर्योंदय से पहले बच्चों को नहलाकर उन्हें नये कपडे़ पहना कर, टीका लगाकर ‘घुघुतों’ की माला उनके गले में डाल दी जाती है। कौवों के लिये रात्रि में बना भोजन पूरी, बड़े, पुए एक पत्तल में ऊँचे स्थान पर रख दिया जाता है और बच्चे घर के बाहर आँगन व छत से कौवों का आह्वान करते हैं। वे ऊँचे स्वर में चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं:-
ले कव्वा घुघुत / मैं दि भलि जुगुत।
ले कव्वा लगड़ /मैं दि भल दगड़।
ले कव्वा बड़ /मैं दि सुनू घड़।।
ले कव्वा तौल। /मै दि भल ब्यौल।।
ले कव्वा गयेंणि /मैं दि भलि स्यैंणि।।
कौवे उड़-उड़ कर दूर दूर से आने लगते हैं। तब बच्चे माला से घुघुते तोड़-तोड़ कर कौवों को खिलाते हैं और उसके बाद खुद भी खाने लगते हैं। मकर संक्रांति की सुबह कुमाऊँ के हर गाँव, शहर में यह दृश्य दृष्टिगोचर होता है। हाँ, बागेश्वर में गंगा के पार से कुमाऊँ के अन्य क्षेत्रों में यह पर्व एक दिन बाद मनाया जाता है, अर्थात् संक्रांति को घुघुते बनाये जाते हैं और उसकी अगली सुबह ‘काले कौवा’ होता है।